विभु कुमार और उनका वस्तु शिल्प
सीमा चैबे एवं आभा तिवारी2
1शोध छात्रा हिन्दी, शा.दू.ब.म.स्ना. महाविद्यालय, रायपुर
2प्राध्यापक, हिन्दी, शा.दू.ब.म.स्ना. महाविद्यालय, रायपुर
छत्तीसगढ़ के कथाकारों में विभु कुमार जी की अपनी अलग पहचान है। विभु कुमार जी की कहानियों में समाज के विभिन्न वर्गाें के लोगों का, उनकी मनःस्थिति का अथवा समाज में उनकी स्थिति का बड़ा ही सूक्ष्म वर्णन है। अपनी बात वे सीधे सपाट शब्दों में भी कह देते हैं, कभी व्यंग्य का सहारा भी लेते हैं। कहीं पाठकों से सीधे आमने-सामने प्रश्न करते से प्रतीत होते हैं, तो कभी भाव विह्ल कर देते हैं। ”विभु कुमार की कहानियाँ समकालीन जिंदगी में आम आदमी की व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई में आम आदमी की पक्षधरता की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में सामान्य जन की तकलीफ उसकी विवशता, निराशा और टूटन का बेबाकी से चित्रण है।“1
विभु कुमार की कहानियों में नाटकीय तत्व भी निहित हैं। यही कारण है कि ‘सही आदमी की तलाश’, ‘एक बिछा हुआ आदमी’ तथा ‘मेरे साथ यही तो दिक्कत है’ जैसी कहानियों का नाट्य मंचन भी हुआ है। ”विभु कुमार ने ‘मेरे साथ यही तो दिक्कत है’ कहानी के द्वारा कहानी के प्रचलित और पारम्परिक फार्म को तोड़ा है और इस कहानी को सीधे नाटक से जोड़ा है। यह विभु कुमार की रचना धर्मिता की जीवन्तता का प्रमाण है।“2
विभु कुमार जी कहानी का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं मानते। स्वयं उन्हीं के शब्दों में - ”मैं क्या करुँ, मुझे मनोरंजन के लिए लिखना जो नहीं आता। मैं तो अनुभवों को लिखता हूँ। अनुभव जो तल्ख सच्चाइयाँ होते हैं और मनोरंजन नहीं देते।“3
विभु कुमार जी समांतर कथा आंदोलन के चर्चित कथाकार रहे हैं। इनकी रचना धर्मिता के विषय में लीलाधर मंडलोई लिखते हैं - ”रस्मी, सूचनापरक और भाववादी कहानियों के समाज से भिन्न इन कहानियों में फिल्म पटकथा के आस्वाद का धरातल है। वे अपनी कहानियों को ‘प्लाट’ की संरचना के अधिक समीप ले जाते हैं। संकेतों में अभिव्यक्ति करते हुए वे पाठक के लिए ऐसा स्पेस छोड़ते हैं कि वह उसे भरते हुए कथा को अपनी तरह से ग्रहण कर सके।“4
कथानक -रू
विभु कुमार की कहानियों में रूमानी लिजलिजापन नहीं है। युवा कथाकारों में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई है। उन्होंने वर्तमान परिवेश व वर्तमान समस्याओं को ही प्रायः अपनी कथा का ‘प्लाट’ बनाया है। ‘एक बिछा हुआ आदमी’ के माध्यम से उन्होंने स्पष्ट किया है कि चाटुकार व्यक्तित्व आज सर्वत्र विद्यमान है। इस कथा में लेखक ने ‘वह’ के माध्यम से एक ऐसे व्यक्तित्व का वर्णन किया है, जिसका स्वभाव ‘बिछा-बिछा-सा’ अर्थात् समर्पित किस्म का है। वर्तमान में जो बिछना जानते हैं वही एक सफल दुनियादार हैं। ऐसे लोगों के भीतर से स्वाभिमान पूरी तरह से समाप्त हो चुका होता है और अक्सर ऐसे मौकों पर भी जब उन्हें आपे से बारह हो जाना चाहिए वे हँसते-मुस्कुराते रहते हैं। लेखक ने उनकी स्थिति वफादार कुत्ते के समान बतायी है, जो अपने अधिकारी से प्रशंसा पाकर कुत्ते की तरह नम्र हो जाते हैं। ”पीछे दुम-सी निकल आती है और सारा शरीर कदमों में बिछ जाता है।“5
लेखक ने स्पष्ट किया है कि उन्हें इस तरह के लिजलिजे स्वभाव से कोफ्त है और पाठकों के मन में भी वितृष्णा का भाव जगाने में वे सफल रहे हैं। ‘कमो-वेश: सबकी में’ वर्तमान समय में साहित्यकारों की दशा एवं उनकी मनः स्थिति का वर्णन है। साहित्यकार समाज से निराश तथा व्यवस्था से हताश होकर भी अपना विरोध सीधे-सीधे प्रदर्शित नहीं कर सकता। तब ऐसी परिस्थिति में भला मन का रोष किस तरह बाहर आये और समाज की बात समाज तक कैसे पहुँचाई जाए। इस हेतु तीन मित्रों के विचारों के माध्यम से एक बियर की बोतल के सहारे व्यवस्था के प्रति एक रचनाकार के आक्रोश का सैलाब टूट पड़ा है।
‘तबादला’ मनोविज्ञान पर आधारित कथा है। जिसमें ‘सत्येन्द्र’ का तबादला कन्या महाविद्यालय में हो जाने पर वह स्वयं में अनेक परिवर्तन अनुभव करता है। वह स्वयं को 50 साल के बजाए 30 साल का महसूस करने लगता है। रोज शेविंग करने लगता है। उसकी आवाज में से पुरुष की कठोरता लुप्त हो जाती है वह नारी की तरह मधुर वाणी बोलने लगता है। उसका स्वाभाव नम्र व उसकी पत्नी का स्वाभाव रोबीला हो जाता है। लोग उसे महिला की तरह संबोधन देने लगते हैं। पत्नी पति की तरह बर्ताव करने लगती है और बच्चे बाप बन जाते हैं। तभी अचानक उसका पौरुष जाग उठता है और बिना किसी को बताए अपना तबादला वहाँ से अन्यत्र करा कर वह अपने पौरुष के अहसास को वापस पा लेता है। ‘एक दुख अलग हटकर’ में एक शवयात्रा का वर्णन है। दुःख भरी इस अंतिम यात्रा में भी न जाने कितने लोग कभी औपचारिकतावश तो कभी सामाजिकतावश, कभी मन से, तो कभी बेमन से शामिल होते हैं। रास्ते भर दुःख की एक रेखा भी किसी के चेहरे पर दिखाई नहीं देती। कोई आस-पास के वातावरण का जायजा लेता चलता है, तो कोई किसी अन्य का किस्सा सुनाता चलता है। बीच-बीच में हंसी-मजाक के अट्टहास भी सुनने मिल जाते हैं। अर्थी लेकर चलने वाले भी इतना तेज चलते हैं जैसे जल्दी कोई काम निपटाना हो।
‘जाले’ कथा की शुरुआत मकड़ी के जाले बनाने की प्रक्रिया से होती है। मकड़ी की ही तरह ‘वह’ भी विचारों की उधेड़-बुन में लगा है। मित्र की लाश कमरे में है, संग कई यादें हैं। मरने की खबर किसी को इस लिए नहीं दी कि कहीं क्यों मरा ? कैसे मरा ? के प्रश्नों में ‘वह’ फंस न जाए। मृत शरीर को जलाए कैसे और छुपाए कैसे इस उधेड़-बुन में एकाएक उसे एक उपाय सूझता है, वह अपना सामान सूटकेस में बंद कर स्टेशन में सुरक्षित रख उस कमरे में आग लगा देता है और स्वयं भी अनजान की तरह तमाशा देखने लौट आता है। इस तरह मकान मालिक को किराए के पैसे भी नहीं देने पड़ेंगे। उल्टे मित्र को मारने की धमकी देकर कुछ वसूलते भी बनेगा। ‘खिलाफत’ एक ऐसे युवक की कथा है जो शिक्षा प्रणाली के दोषों से कुंठित है। जिसने एक सामान्य से विषय में एम.ए. किया है और एक सामान्य सी नौकरी कर रहा है शायद इसी लिए पिता व छोटे भाई से डरता है। देर से लौटने पर प्रतिदिन पिता की नाराजगी का भय रहता है। एक दिन पिता पर ही सारी भड़ास निकल जाती है। अपनी इस हरकत पर वह शर्मिंदा है पर शर्मिंदा होना नहीं चाहता। पिता का बुझा-बुझा चेहरा देखकर आत्मग्लानी होती है। सारा दोष व्यवस्था का है उसी ने आज के नवयुवकों को ऐसा बना दिया है। वह व्यवस्था बदलना चाहता है। द्वंद्व का यह तनाव बाथरुम में जाकर कम हो जाता है। भीतर जागा मसीहा मर जाता है पुनः पिता के लिए आक्रोश जागृत हो जाता है क्योंकि वह बस इसी तरह खिलाफत कर सकता है।
‘यात्रा-शवयात्रा’ में शर्मा जी नामक पात्र के माध्यम से व्यक्तिवादी अहं को बताया गया है। शर्मा जी मन न होते हुए भी पड़ोसियों के आग्रह पर प्रसाद जी की मृत्यु होने पर परिवार की मदद हेतु उपस्थित होते हैं। मिसेज प्रसाद की हालत देखकर एक अलग सी सहानुभूति उत्पन्न होती है और वे थकान भूलकर उस आकर्षण में मदद को दौड़ पड़ते हैं। दूसरी ओर पुत्र को भी पिता की मृत्यु व्याकुल नहीं कर पाई है। दृश्य कुछ इस तरह है कि - ”मिस्टर प्रसाद का बड़ा लड़का अर्थी के पास खड़ा अपनी टाई की नाट सुधार रहा था। उसे आश्चर्य हुआ। उसने देखा कि फोटोग्राफर अर्थी के पास लड़के की फोटो ले रहा था।“5
वास्तव में ”विभु कुमार की ‘यात्रा-शवयात्रा’ शीर्षक कहानी आज के इस यंत्रीकृत और जटिल परिवेश में व्यक्तिवादी अहं को प्रस्तुत करती है। व्यक्ति कितना टुच्चा और स्वार्थधर्मी बन जाता है और मृत्यु जैसी स्थिति को भी उपेक्षणीय और नकारात्मक दृष्टि से देखता है, इस कहानी में यह स्पष्ट होता है।“6
पात्र एवं चरित्र -रू
विभु कुमार जी ने अपने पात्रों को प्रायः अनाम रखते हुए उनके नाम के स्थान पर सर्वनामिक प्रयोगों ‘मैं’ और ‘वह’ का प्रयोग किया है। इसका कारण है कि इन प्रयोगों के माध्यम से पाठक स्वतंत्र होकर अपने आस-पास अथवा अपने अंदर उस व्यक्तित्व से पूरी तरह आत्मसात हो सके। यथा चाटुकारों का चरित्र किस तरह होता ह,ै इसे ‘वह’ के माध्यम से स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि -”सर, वो आपसे कहा था न, सब ठीक हो जायेगा। मैंने कर दिया है। आप चिंता न करें - एकदम। सर पीठ पर हाथ रखकर फेर देते हैं। उनका मुँह कुत्ते-सा हो जाता है। पीछे दुम-सी निकल आती है और सारा शरीर कदमों में बिछ जाता है।“7
कथा ‘तबादला’ में ‘सत्येंद्र’ का चरित्र गतिशील पात्र के रूप में है जो कन्या महाविद्यालय में आने के पूर्व तक रोबीले व्यक्तित्व का धनी था परन्तु कन्या महाविद्यालय में आने के बाद अनायास ही अपने भीतर नारी सुलभ परिवर्तन महसूस करने लगता है और अंततः अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु अपना तबादला अन्यत्र करा लेता है। कथा ‘आवश्यक’ का मुख्य पात्र ‘रवि शुक्ला’ अपने ही फ्लैट में रहने वाले मद्रासी व्यक्ति पिल्ले से ताल-मेल नहीं बैठा पाता क्योंकि रवि शुद्ध शाकाहारी है, तो पिल्ले मांसाहारी। रवि के पास साइकिल है, तो पिल्ले के पास स्कूटर। रवि विवाह हेतु नई कल्पनाएँ बना रहा है, तो पिल्ले हरेक इतवार को एक नई लड़की को अपनी स्कूटर पर घुमा रहा है। पिल्ले की अकस्मात् मृत्यु पर रवि को सहानुभूति तो है परन्तु वह मि. पांडे की लड़की देखने जाना अधिक आवश्यक समझता है क्योंकि वह अपनी आने वाली नई जिंदगी को पिल्ले की जिंदगी के साथ खत्म नहीं करना चाहता। कथा ‘जाले’ का सर्वनामिक चरित्र भी इसी तरह का है।
वास्तव में विभु कुमार जी ने अपनी कथाओं के माध्यम से जो चरित्र उजागर किए हैं वे यथार्थ के अधिक निकट हैं, उनमें आदर्श रूप का अभाव है। कल्पना का स्थान कथाकार के अनुभव ने लिया है। ”प्राचीन रचनाकार समाज के माध्यम से व्यक्ति को जानने की कोशिश करता था, आज का रचनाकार व्यक्ति के माध्यम से सामाजिक स्वरूप को समझना चाहता है। आदर्श पात्रों से अब उसे वितृष्णा होने लगी है। क्योंकि समाज में दीया लेकर ढूँढने पर भी ऐसे व्यक्ति नहीं मिलते। परिणाम स्वरूप गढ़े-गढ़ाए काल्पनिक कथानकों का जादू अब टूट चुका है। युग के बदलते स्वरूप की माँग के अनुसार लेखक ने मानव-समाज को निर्वेयक्तिक यथार्थवादी दृष्टि से देखने की चेष्टा की है।“8
संवाद -रू
संवाद को कहानी का प्राण तत्व माना जाता है। पात्रों के बीच होने वाली बातचीत का लिखित स्वरूप ही संवाद कहा जाता है। विभु कुमार जी की कथाओं में संवाद कहीं संक्षिप्त है, तो कहीं बड़े, परन्तु वे बड़े ही स्वाभाविक, सटीक एवं भावानुकूल हैं। उनकी लेखन कला में संवाद बातचीत की चुटकियों का प्रकट आनंद देते हैं यथा -
”बेटा तुम क्या समझो समीक्षक की दृष्टि क्या होती है। समीक्षा क्या होती है।
कभी ढंग की समीक्षा लिखी या पढ़ी हो तब न !
यार अब तक जितनी कुछ समीक्षा पढ़ी है, तुम्हारी लिखी ही पढ़ी। हम तो तुम्ही को ढंग का समझते थे। आज मालूम हुआ कि गलती पर थे। अब पढ़ेंगे कुछ और । ..........
बेटा खोपड़ी में कुछ अकल होनी चाहिए मेरी समीक्षा को समझने के लिए, जो तुम्हारे पास है नहीं। और जब बँट रही थी तुम बैठे सो रहे थे। .......
बेटा उस समय तुम्हारी ही समीक्षा पढ़ रहा था और नींद लग गयी थी।“9
कहीं-कहीं संवादों में क्षेत्रीय भाषा का भी प्रयोग किया गया है। यथा -
”सामने से दो औरतें आ रही थीं। उन्होंने पूछा - कौन कोती ले गए वो ?
एही कोती तो गे हे मालिक।“
इसी तरह अंग्रेजी के संवाद भी दृष्टव्य हैं - ”मिस्टर खन्ना अपने विशेष अंदाज में एड़ियों पर उचक-उचक कर कह रहे थे - नो-नो, आई अपोज दिस स्ट्राइक। वी विल लूज दि सिंपेथी आॅफ दी पेरेंट्स एंड दी पब्लिक।“9
कहीं-कहीं तो विभु कुमार जी सीधे पाठकों से वार्तालाप करते हुए प्रतीत होते हैं और एक दृश्य उत्पन्न कर देते हैं यथा -
”और सब खैरियत है न घर में चलिए अच्छा है। मेहरबानी है उसकी वरना आजकल तो कट जाए यही बहुत है।
लीजिए भी। तकल्लुफ न करें। फिर आप ही तो हमारे माई बाप हैं। आप न होंगे, तो हम कहाँ होंगें।“10
वातावरण -रू
कथा में वातावरण अथवा देशकाल के माध्यम से समाज का सामयिक परिवेश प्रस्तुत किया जाता है। रचना का आधार समय, समाज और व्यक्ति से प्राप्त होता है। यही वह माध्यम है जो कथा को समाज से जोड़ता है और पाठकों को अपने बीच घटी किसी घटना की अनुभूति कराता है। वातावरण मुख्यतः दो प्रकार के माने गए हैं। (1) मानसिक तथा (2) भौतिक। संबंधित पात्रों के मानस में चले वाले ऊहापोह अथवा वैचारिक आंदोलन को मानिसक वातावरण के अंदर रखा जाता है। यथा - ”उन्हें महसूस होने लगा था कि चाहकर भी ‘पतिपन’ का इजहार नहीं कर पा रहे हैं। हर बार ऐसी-वैसी स्थिति में वह बस मन मसोसकर रह जाते। उन्हें लगने लगा था कि वह अब पत्नी पर रोब गालिब नहीं कर पायेंगे और अंदर-ही-अंदर घुट-घुटकर रह जाते। पत्नी को देखते और सकपका जाते।“11
एक और उदाहरण दृष्टव्य है - वह सोया था और उसे एकाएक किसी परिचित की मृत्यु का समाचार मिला समाचार भी ऐसा था कि जाना आवश्यक था - ”वह लौटकर फिर लेट गया। उसे बेहद गुस्सा आ रहा था मरने वाले पर। पर क्या करता। सोचा, मरने वाले का भी क्या दोष। मान लो वही मर गया होता। और किसी को सोते से आना पड़ता तब ? वह खुश हुआ। उसमें आदमीयत है। मरी नहीं है।“12
इसी तरह कथा ‘कमो वेश: सबकी’ में एक साहित्यकार की मनःस्थिति को सत्यता के साथ उद्घाटित करने के लिए लेखक ने मदिरामय वातावरण का निर्माण किया है क्योंकि सामान्य स्थिति में अनेक कारणों से व्यक्ति मन के उद्वेग को जाहिर नहीं कर पाता परन्तु नशे की हालत में अक्सर बेबाक सत्य उद्घाटित हो जाते हैं। इस तरह बाह्य परिवेश में चलने वाले क्रिया-कलाप अथवा रीति-रिवाज भौतिक वातावरण के अंतर्गत आते हैं। यथा - ”किचन में स्टोव पर पहले उसने अपने लिए एक कप चाय तैयार की। फिर पराठे और सब्जी बनाई। खाना खाकर उठा तो साढ़े आठ हो चुके थे ........ सोचा काफी समय है। आधा घण्टा आराम कर ले फिर जाए। बिस्तर पर लेटते ही उसकी झपकी लग गई।“13
भाषा शैली -रू
विभु कुमार की भाषा सरल-स्पष्ट, प्रभावपूर्ण एवं मुहावरेदार है। उन्होंने आवश्यकतानुसार कोफ्त, महसूस, दरम्यान, नाकारा, जाहिल, गुलाम, हैरान, बहरहाल, माहौल, मजा आदि उर्दू-फारसी शब्दों का प्रयोग किया है। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी शब्दों का भी भरपूर प्रयोग किया है जैसे सीरियस, प्लेटफार्म, सिंसियर, ट्रिप, नार्मल आदि। जो कथा की प्रभावोत्पादकता में वृद्धि करते हैं। तत्सम व तद्भव शब्दों की भी प्रचुरता है। देशज शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी भाषा के शब्दों का प्रयोग भी सुन्दरता बढ़ाते हैं। वाक्य प्रायः छोटे हैं। जैसे -
”क्या कर रहे हो आजकल !
बस आपकी कृपा है
कहाँ हो आजकल ?
जी, आपके चरणों में।“14
कहीं-कहीं बड़े वाक्य भी प्रयुक्त हुए हैं जैसे - ”छोड़ भी यार साहित्य-वाहित्य के चक्कर को। पचपन करोड़ के इस देश में जहाँ बीस करोड़ हिन्दी भाषी हैं, जिसमें साहित्य की ले-देकर एक-दो पत्रिकाएँ हैं - जिन्हें भी मुश्किल से लाख दो लाख पाठक नसीब नहीं, वहाँ आदमी लिखकर भी क्या करेगा और सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि जिनके लिए लिखता है उन तक चीजें पहुँचती नहीं और जिन तक पहुँचती हैं, उनका टेस्ट भी अलग है।“15
हैरान रह जाना, गुण गाना, आपे से बाहर होना, गदगद होना आदि मुहावरों का भी प्रयोग किया है। विभु कुमार जी की लेखन शैली बातचीत की तरह है। जिसमें लेखक अपनी बात कहता है तथा पाठक के मनोभावों से अपने मनोभावों का तादात्म्य कर उत्तर-प्रतिउत्तर के रूप में ही कथा का विस्तार करते चले जाता है। हम कह सकते हैं कि वर्णनात्मक शैली का ही उनकी कथाओं में प्रायः प्रयोग हुआ है।
उद्देश्य -रू
प्रत्येक कथा एवं कथाकार का एक निश्चित उद्देश्य होता है। उद्देश्य विहीन कथा सार्थक नहीं मानी जाती। जिस तरह कहानी के लिए कोई नीति या नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता उसी तरह उद्देश्य भी सीमित न होकर जीवन के विविध आयामों में व्याप्त माना जाता है। विभु कुमार जी भी कहानी का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं मानते स्वयं उनके शब्दों में - ”मैं क्या करुँ, मुझे मनोरंजन के लिए लिखना जो नहीं आता। मैं तो अनुभवों को लिखता हूँ। अनुभव जो तल्ख सच्चाइयाँ होते हैं और मनोरंजन नहीं देते।“16 ‘कमो वेश: सबकी’ में साहित्य एवं साहित्यकारों के मन की निराशा को व्यक्त किया गया है। सत्य यही है कि कभी साहित्यकार स्वयं से निराश होता है तो भी व्यवस्था को दोष देकर मानसिक संतोष प्राप्त कर लेता है, तो कभी सचमुच साहित्य में रस रखने वालों की कमी के कारण योग्यता पर्याप्त अनुशंसा नहीं पा पाती। ‘यात्रा-शवयात्रा’ शवयात्रा में शामिल होने वाले लोगों की मनः स्थिति व दिखावे की औपचारिकता को स्पष्ट करती है। ‘एक बिछा हुआ आदमी’ से स्पष्ट है कि चाटुकार व्यक्तित्व अस्तित्वहीनता का परिचायक है। वह समाज में घृणा का एवं हँसी का पात्र है। विभु कुमार जी ने अपनी कथाओं में अव्यवस्था के प्रति रोष व्यक्त किया है। दोष पूर्ण शिक्षा प्रणाली व स्वार्थपूर्ण मानवता को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर परिवर्तन व क्रांति का संदेश दिया है।
संदर्भ ग्रंथ सूचीरू
1ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, आवरण से
2ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, आवरण से
3ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 8
4ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - माँ तुम कविता नहीं हो, नयी दिल्ली, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, संस्करण-2003, आवरण से
5ण् शुक्ल विनोद शंकर, विभु कुमार चयनिका, रायपुर, छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, प्रथम संस्करण-2009, पृ. 65
6ण् गुप्ता सरोज, स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी में विचार तत्व, दिल्ली, भारतीय कला प्रकाशन, संस्करण-1999, पृ. 237
7ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 9
8ण् मेंहदी रत्ता कांता (अरोड़ा), हिन्दी कहानी का मूल्यांकन, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण-1994, पृ. 20
9ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 21
10ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 98
11ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 26
12ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 31
13ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1978, पृ. 48
14ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 11
15ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 22
16ण् कुमार विभु, कथा संग्रह - मेरे साथ यही तो दिक्कत है, दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-1978, पृ. 8
Received on 15.02.2011
Accepted on 27.02.2011
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Research J. Humanities and Social Sciences. 2(1): Jan.-Mar. 2011, 19-22